तुम्हे पाकर , तुमसे दूर रह कर
प्रिया
तुम्हे पाकर , तुमसे
दूर रह कर मुझे
ऐसा लग रहा हैं ! –
रहते थे उनके पास जो मुदुहास की तरह
जीते हैं ज़िन्दगी वहीं वनवास की तरह
जीवन में कमी सी रह गई है तेरे बिना
होठों पैं तैरती एक प्यास की तरह
आँखों में आभा हैं तेरे रूप की आज भी
उपवन में दहकते पलाशकी तरह
उनसे बिछुड़ के आज भी वो हालत हैं
बिखरे हुए है हम, धुनी कपास की तरह
अनुभव के फफोले आज तक हुए न ठीक
रिसते रहते है अनवरत आकाश की तरह
पालकर दिल में तमन्ना फिर तुम्हारे दीदार की
जी रहे है हम, पुनः जीवन के आस की तरह.
परशुराम
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