ये बिखरे ओस कब ,तुम रोई थी सजनी ?
ये बिखरे ओस कब ,तुम रोई थी सजनी ? तुम्हारी खनारी आँखों में आँसू किस व्यथा का साकार रूप बनकर आये ? कभी -कभी देखता हूँ। तुम्हारी मधुर मुस्कान उदासी के काले बादल में छिप जाती है | कौनसी व्यथा तुम्हारे मानस से उठकर बदन पर छा जाती है ? मुझसे भी न कहोगी सजनी अपनी व्यथा का राज ? पलकों में रात गिनते – गिनते तुम्हारी सलोनी सूरत देखि लज्जा से आराक्त। तुम्हारी मादक आँखों से सरसता और मुस्कान से मधुरता झरते देखी | तुम्हारे होंठ बोलने को फड़के किन्तु बोल न सके तुम्हारी आखो से ही मौन भाषा में कुछ कहा किन्तु पहेली बनी रही | मेरे प्राणों में मधुरता उड़ेल कर जहर मत घोलो मानिनी ! अपने आँसुओं से मेरे मानस की गहराई मत नापों सजनी ! तुम क्यों रोई थी सजनी बोलो ?
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