विश्व रंगभंग पर तुम्हारा अवतरण हुआ
पहिली बरसात बरस गई हैं और तुम्हारी सुधि रह – 2 कर आ रही हैं | तुम और कोई नहीं, केवल उन हल्के गहरे गुलाबी फूलों की मीठी गंध हो जिससे मई – जून की भीषण ग्रीषम रात्रियों में एकाकीय के युग व्यापी क्षणों के अभाव को मिटाकर मेरे तन मन पर अधिकार कर लिया था ,हैं | तुम वही मोहिनी हो जिसका मधुर चुम्बन और परमाणु अंगो का परिरंभण नवजीवन और स्फूर्ति दे गया | तुम वही हो चंद्रा !जिसके मधुर उछ्वासो से मेरे जीवन के समस्त उछ्वास अपनी दाहकता छोड़ शीतल और सुखद बन गये थे | पर आह ! निष्ठुर तुम चली गई मेरी ज्वाला को जलन देकर |
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